आज कुछ लिखना है मुझे
आज कुछ लिखना है मुझे
कुछ लिखना है आज मुझे,
हाँ, आज कुछ लिखना है मुझे,
कब से सोच रहा हूँ क्या लिखूँ,
पर मुझे कुछ भी तो न सूझे।
भूत लिखूँ, या लिखूँ वर्तमान,
या फिर भविष्य के सपने लिखूँ?
यादें लिखूँ, या फिर अहसास लिखूँ,
या दिल की कोई फरियाद लिखूँ?
सुना है आज छवि विचार का विषय है,
तो क्या कोई नई कविता लिखूँ?
पर मैं कविता लिखना नहीं जानता,
तो फिर कैसे कोई जज्बात लिखूँ?
चाहता था कि कवि बन जाऊँ,
पर कवि मैं कभी बन न सका,
कोशिश खूब की कविता लिखने की,
हार कर बीच राह कभी न रुका।
लिखा आज तक बहुत कुछ मैंने,
पर न लिख पाया एक भी कविता।
भाव आते हैं फिर खो से जाते हैं,
कैसे बहाऊं मैं शब्दों की सरिता?
हर तरफ छाया हुआ है अँधियारा,
तो क्या आज अंधियारे पर लिखूँ?
आसमान में चमक रहे अनगिनत तारें,
तो क्या तारों की इस चमक पर लिखूँ?
हवा भी चल रही धीमे धीमे,
हवाओं के रुख पर कुछ लिखूँ?
इक्का दुक्का बादल भी दिख रहे,
तो क्या धवल बादलों पर लिखूँ?
बड़ी उलझन है आज इस दिल में,
जाने क्यूँ पैदा हो गई ये उलझनें?
तो क्या इन उलझनों पर कुछ लिखूँ,
या सुलझी हुई इस जिन्दगी पर लिखूँ?
सुबह से बस यही सोच रहा हूँ,
कि पद्य लिखूँ या गद्य लिखू?
पर एक उलझन और भी है,
कि आखिर लिखूँ तो कैसे लिखूँ?
अरे यह क्या? अजीब सी बात हो गई,
कुछ न लिख पाया, पर रात हो गई।
न हूँ मैं कवि, न लिखी मैं ने कविता,
अनजाने में कविता से मुलाक़ात हो गई।
