किससे कहूँ मैं मन की बातें
किससे कहूँ मैं मन की बातें
कहने को तो सब अपने हैं, पर दिल से हुए पराये,
किससे कहूँ मन की बातें, यही बात समझ न आए।
कैसे करूँ मैं बातें सांझा, बातें फैलती हैं अति शीघ्र,
कहने से पहले बातें पहुँच जाती, गति बड़ी ही तीव्र।
कहने से भी डरने लगा हूँ, पता नहीं क्या चुभ जाए,
बातें कहकर ही जिन्दगी में, धोखे मैंने बड़े ही खाये।
बातों से अपने होते नाराज, बेगानों की क्या बात कहूँ,
इससे अच्छा न ही कहूँ, बातें दिल में समेट ख़ुद सहूँ।
क्या फायदा ऐसी बातों का, जो रिश्ता ही बिगाड़ दे,
क्यूँ करूँ कोई बात, जो सुकून जीवन का उजाड़ दे।
सहनशीलता कहाँ रही, दिल लोगों के कमजोर हुए,
जब भी कोई बात चुभी, दिलों में गहरे शोर हुए।
मन की बातें मन में रहे, इसे ही बनाया मैंने उसूल,
क्यूँ कहूँ कुछ भी किसीसे, जब सुननी पड़े ऊलजलूल।
आपकी बातें कौन समझेगा, बात का बनेगा बतंगड़,
इससे अच्छा चुप ही रहें, रुका रहेगा भावों का बवंडर।
अब तो आदत सी हो गई है, बातें दबा कर रखने की,
दिल की बात कहने से पहले, जरूरत रखो परखने की।
एक एक शब्द सोच कर बोलना, सको तो न ही बोलना,
कुछ भी कहने से पहले सदा, बातों को ठीक से तोलना।
देखना सब अलग होगा, बदला बदला सा माहौल होगा,
कोई दुःखी न होगा, जिन्दगी का अलग भूगोल होगा।
तुम्हारे दुःखों से किसी को भी, क्या है भला सरोकार,
क्यूँ कुछ भी कहकर बातें, झेलें हम बेकार प्रतिकार?
