मैं भीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ, न नाम मेरा, न ही कोई पहचान,
सब के साथ चलती हूँ, फिर भी हूँ अनजान।
हज़ारों आँखें मेरी, पर खुद को ना देख सकूँ,
जिस दिशा धकेली जाऊँ, बस उसी ओर बहूँ।
मैं तब जन्मी जब एक ने डरकर चुप्पी साधी,
दूसरे ने सोचा, "चलो, यही है राह आसान सी"।
मैं बढ़ती गई, जब सवालों की जगह नारे आए,
जब सच की जगह सब ने झूठ के झंडे फहराए।
मैंने कई राज बनाए, कितनी क्रांतियाँ कुचली,
कई मंदिर जलाए, आस्थाओं को चढ़ाया शूली।
मैंने ही वीरों को भी कई बार गद्दार बनाया,
मैंने ही निर्दोषों पर सैकड़ों बार कहर बरसाया।
मेरे पास आवाज़ भरपूर है, पर दिशा एक नहीं,
मेरे पास शक्ति अपार है, लेशमात्र विवेक नहीं।
जो चीखते हैँ ज़्यादा, मैं उन्हीं की हूँ हो जाती,
जो सोचते हैँ चुपचाप, उन्हीं को कुचलती जाती।
कभी-कभी तो लगता है, कि मैं भी थक गई हूँ,
हर रोज़ बे गुनाहों पर चढ़ती चढ़ती पक गई हूँ।
जब कोई आईना दिखाता है, आँखें मूँद लेती हूँ,
अपनी गलती किसी और के मत्थे मढ़ देती हूँ।
मेरी ताक़त तुम हो—हाँ, तुम्हीं जो सोचते नहीं,
जो प्रश्न नहीं करते, बस पीछे चल देते यूँ ही।
एक दिन जब तुम ठहरोगे, खुद को समझोगे,
तब मैं टूटूँगी, और तभी तुम कुछ सुलझोगे।
मैं भीड़ हूँ — तुमसे बनी हूँ, तुम्हीं से चलती हूँ,
जाग कर ही मुझे बदल सकते हो, मैं कहती हूँ।
मैं चेहरों का समुंदर हूँ, पर खोया है हर चेहरा,
चलते हैँ सब संग, पर कोई न हुआ कभी मेरा।
स्वरचित
सीए रतन कुमार अगरवाला “आवाज़”
गुवाहाटी, असम
03-05-2025
