Rashmi Prabha

Inspirational

3.7  

Rashmi Prabha

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खुद की जड़ें

खुद की जड़ें

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सबको आश्चर्य है

शिकायत भी

दबी जुबां में उपहास भी 

कि बड़े से बड़े हादसों के मध्य भी

मैं सहज क्यूँ और कैसे रह लेती हूँ !


चिंतन तो यह मेरा भी है 

क्योंकि मैं भी इस रहस्य को जान लेना चाहती हूँ ...

क्या यह सत्य है 

कि मुझ पर हादसों का असर नहीं होता ?


यह तो सत्य है कि 

जब चारों तरफ से प्रश्नों 

और आरोपों की अग्नि वर्षा होती है

तो मेरे शरीर पर फफोले नहीं पड़ते 

जबकि कोई अग्निशामक यन्त्र नहीं है मेरे अन्दर !


जब अमर्यादित शब्दों से 

कोई मुझे छलनी करने की चेष्टा करता है 

तो मैं कविता लिखती हूँ

या किसी पुस्तक का संपादन 

अन्यथा गहरी नींद में सो जाती हूँ !


हाँ...मुझे यथोचित ... 

और कभी कभी अधिक 

भूख भी लगती है - 

तो मैं पूरे मनोयोग से अच्छा खाना बनाती हूँ 

खिलाती भी हूँ 

खा भी लेती हूँ ...


बीच बीच में फोन की घंटी बजने पर

अति सहजता से उसे उठाती हूँ 

हँसते हुए बातें करती हूँ 

वो भी जीवन से जुड़ी बातें ...


लोगों का आश्चर्य बेफिज़ुल नहीं 

मैं खुद भी खुद को हर कोण से देखती हूँ 

हाँ देखने के क्रम में 

उस लड़की ....

यानि स्त्री को अनदेखा कर देती हूँ 

जो समय से पूर्व अत्यधिक थकी नज़र आती है 

जो शून्य में अपना अक्स ढूंढती है

सुबह की किरणों के संग सोचती है

'ओह...फिर दिनचर्या का क्रम'


रात को बिस्तरे पर लेटकर एक खोयी मुस्कान से

खुद को समझाती है

'नींद आ जाएगी'...

अपने उत्तरदायित्वों से वह जमीन तक जुड़ी है

हारना और हार मान लेना दो पहलू हैं 

तो.... वह हार नहीं मानती 

एक सुनामी की आगोश में

अपनी सिसकियों के संग 

गीत भी सुनती है 


लोग !

सिसकियाँ सुनने की ख्वाहिश में 

जब गीत सुनते हैं

तो उनका आक्रोश सही लगता है

और मैं भी खुद से विमुख 

खुद की जड़ें ढूँढने लगती हूँ ...।।



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