बंद करो ये युद्ध आलाप.......
बंद करो ये युद्ध आलाप.......
छत की सरजमी भी बड़ी प्यारी है जनाब,
दिखाती है नजरों को दिन में ख्वाब
मैंने देखी वही दीवार , बेजुबान घर ,
वही नदी और वही पुराना शहर यार।।
मन की सुनी तो,
खुशहाली से भरा जीवंत दृश्य मानो पल भर में बदल गया,
जैसे हो लहलहाती फसलों के बीच कोई सुखा बंजर खेत,
जैसे हो लंबी चौड़ी रेतीली बिन पानी सी नदी,
जैसे हो कोई घनन युद्ध बिना रण शस्त्र तलवार ।।
सोते जागते दिन और रात,
जीवन जीने को हो युद्ध आलाप,
न इतना भी सरल की कायम हो जीत,
अंतरमन से जिसने सुनी हो चीख,
बस मन ही मन रहे ख़ुद को बांच ,
युद्ध की सुन तीक्ष्ण पुकार ।।
मंत्रमुग्ध, विलासीन हूं, मैं अपने जीवन में
भला क्यों मैं सुनूं उनकी पुकार,
जिन नीच,गरीबों को दुनिया कहती बेकार,
सच कहूं तो इन्ही के दम से चलता है संसार ।
फिर ये विडंबना है कैसी??
जिसे जो चाहे जब चाहे पाए,
और जो है इस सभ्यता का आधार,
उसे मिला दुखों का अंबार ।
सोच कर मेरे तो आंसु निकल आए
मानव को फिर भी शर्म न आए
जब चाहे बहिष्कार करे ,करे जब चाहे आघात
अब तो बंद करो के ये शर्मनाक पाप ।
कैसा लगे जो हो रात्रि पर चमकता चांद नहीं,
कैसा लगे जो हो रौशनी पर दिन उसका नाम नही,
कैसा लगे जो हो गंगा पर बहती जल धार नही,
कैसा लगे जो हो जीवन , पर जिंदगी उसका नाम नही ,
किसी पहाड़ी की कोख में ,
जन्मी हो जैसे उनकी सभ्यता,
ऊपर को आ पाना ही है चुनौती बड़ी
ऊपर वाले "पहाड़ी" ,भी रखते सदा फौज खड़ी
इसलिए नही की कर सके रक्षा ,
उन पर्वतागर्भ वासियों की,
डर तो उन्हें भी है,
इनके कर्म क्रांत कथाओं की।।
आखिर लाख लगा लो पहरे या करदो पूरी फौज खड़ी,
कीचड़ का कमल जैसे होता है पोखर की शान,
जोखिम लेकर अपनी जी जान,
कोई न कोई गर्तवासी अवश्य बनता है महान ।
ये गाथा आज की नही, नाही कल की है।
ये तो युद्ध है , आदि अनंत कालों की,
चली आ रही बिना रोक- टोक,
प्रथाओं के आचरण की ।
गर्त वाले इतने भी कमजोर नही की ,
डर जाए केवल किसी के डराने से,
लेकिन, मरता तो एक पेड़ भी है,
जड़ अलग हो जाने से।।
मैदानों में रहने वाले धनवान है ज्ञानी है
पर अनजान है ज्ञान से ,
या नही चाहत को पाने की,
या की होने का धनवान हो उन्हे अहंकार,
अहंकार, जिसने रावण के दसों सर,
बीसियों हाथों का कर दिया विनाश
कथा विद्वानों को भी शायद इसका न हो आभास
अगर नही ठहरे अब, आएगा प्रलय होगा सर्वविनाश ।
मुश्किल है दूरियां मिटाना गर्त और मैदानों में,
पर अभी नहीं तो फिर नही कभी होगा कल्याण ,
होंगे फिर आतुर लेने को अपनों के प्राण,
समझ जाओ अब भी और करो मिलकर मानव का निर्माण ।।
पगडंडी से महामार्गों का सफर तय हो सकता है,
साथ मिल जाएं तो सब संभव हो सकता है,
मिल जाएगी मुठ्ठी तो सपने होंगे साकार,
नही रहेगी किसी शस्त्र की दरकार।।
फिर न होगी कोई धरती बंजर,
निर्मल होगी हर नदी और ,
होगा सुखी हर परिवार ..................