दीपों के व्यापारी
दीपों के व्यापारी
दीपों से सजा मेरा घर , पूरा मुहल्ला दीपों का शहर,
आम के पत्ते और अशोक की पंखुड़ियों ने उसे सजाया,
बहने लगी रंगोली की धार,हुई पटाखों की बंबार....
लक्ष्मी - गणेश जी की , की आरती..
मांगे उनसे अनेक वरदान...
की बन जाऊं मैं भी बलवान और बन जाऊं बुद्धिमान
साथ ही लग जाय नौकरी लगा दूं पैसों का अंबार.....
मां ने पूछा - ईश्वर से क्या मांगा ?
मैंने उनको सारी बात बताई।।
कहा उन्होंने की तू अभी छोटा है ।।
पहले करले पटाखों से प्यार, फिर लगाना पैसों का अंबार ।।।
पर, ये बात समझ में मेरी गई नही,
की उनके घर में रोशनी क्यों नहीं ?
जिनका घर है उस नदी के पर,
करते है जो दीपों का व्यापार ।
क्या उनके लिए नही बने कोई त्योहार
या है नही पटाखों का उनका बाजार
या है वो कोई प्राणी दूसरी दुनिया के
या है नही कोई उनका भगवान ????
करने को उत्तर की तलाश ,चल पड़ा मैं उनके आवास
पहले लगा डर, की जान कर मुझे अनजान ले न ले मेरे प्राण,
घर के आस पास उगी थी घास , पर दिल के बड़े थे साफ।
मिल गए अब सवालों के जवाब,
हो त्योहार या कोई बीमार ,है दोनो पल समान।।
नही है हम कोई जमींदार, जो बना हो हमारे लिए
त्योहार।
हमारे तो चले घर अगर हो ठीक ठीक दीयों का व्यापार
वरना घुट घुट के जीना पड़े बार बार
है नही अलग हम इस दुनिया वालों से, लगता है कर दिए
गए है दूर खुशी,सुख,धन और त्योहारों से.....
हां हां नही हमारा कोई भगवान...जो कर सके हमारा
कल्याण...
और न दे सकती मैं तुझे जवाब ....
तंग आ चुकी हूं....।