पीले पत्ते और घर के बुजुर्ग
पीले पत्ते और घर के बुजुर्ग
अकसर बालकनी में खड़े होकर
मैं पौधों को निहारा करती हूँ
और उन्हें सहलाते सहलाते
मैं अकसर पीले हो गए पत्तों को
जब हल्का सा छूती हूँ तो वो
खुद बखुद नीचे गिर जाते हैं
ना जाने कब और कैसे
उन पत्तों को गिराना अनजाने ही
मुझे बहुत अच्छा लगने लगा
अब मैं रोज किसी भी एक पौधे को
लक्ष्य बनाकर उसके सारे पीले पत्ते
गिरा देती और सिर्फ हरे पत्तों को देखकर
मन ही मन बहुत प्रसन्न होती
लगता कि जैसे इस पौधे को
मैंने एक नया जीवन दे दिया है
पूरी तरह हरा भरा होकर
कितना इतराता होगा ये
ऐसी कल्पना करके मैं हँसती
और मन ही मन दूसरे पौधों से कहती
कल तुम्हारी बारी है.....
अब रोज ही मेरा ये नियम बन गया
लेकिन एक दिन एकाएक
मुझे लगा कि ये पौधे मुझसे
कुछ कहना चाहते हैं
शायद कुछ समझाना चाहते हैं
इसे विचार कहो या अनुभूति
मैंने आँखें बंद की और
उस पौधे की बात को समझने की
कोशिश करने लगी.......
ऐसा लगा कि वो मुझसे कह रहा है
ये पीले पत्ते हमारे जन्मदाता हैं
हमारा वजूद इनसे ही तो है
तुम रोज क्यों इन्हें गिरा देती हो
क्यों हमें अनाथ कर देती हो
उन्हें तो एक दिन खुद झड़ना ही है
हमसे एक दिन बिछड़ना ही है
लेकिन जब तक वो खुद ना गिर जाएं
तब तक तो उन्हें हमारे साथ जीने दो
क्या तुम अपने घर में
पीले पड़े हुए पत्तों को भी
यूँ ही निकाल फेंकती हो
क्या वो भी तुम्हारी जिंदगी की
हरियाली में, खुशियों में बाधक हैं
जाओ उन्हें भी बाहर निकाल फेंको
फिर मुझे बताना कि ऐसा करके
तुम्हें कितनी ख़ुशी मिलती है
उन्हें दर्द में धकेल कर तुम्हारा जीवन
किस तरह हरियाली से झूम उठता है
उसकी बात सुनकर मैं काँप उठी
और मुझे अपने गुनाह का बोध हुआ
मैंने सारे पीले पत्तों को उठाया
और उस पौधे की जड़ों के पास रख दिया
और अब मैं बड़े ध्यान से
पौधों पर हाथ फिराती हूँ
ध्यान से उन्हें पानी देती हूँ कि कहीं
अनजाने में भी मुझसे कहीं कोई
पीला पत्ता ना गिर जाए
कोई अपना किसी अपने से
जुदा ना हो जाए............।