अब मैं रुकूंगा नहीं
अब मैं रुकूंगा नहीं


हंगामा हो रहा है हर तरफ, हर रात तूफ़ानी रात है
न जाने जाना कहाँ है मुझे, ऐसे बिगड़े हुए हालात है
कहाँ से क्या सोच कर, घर छोड़ कर मैं चल दिया था
हल छोड़ कर, खेत छोड़ कर शहर में मैं बसने आया था
छोड़ आया था वह पगडंडियां अनोखे सपने सजाने खातिर
वो शहरों की तपती भट्टियां पर निकली बड़ी ही शातिर
ले गई मुझसे मेरा खून पसीना और रातों का सुख चैन
तपता रहा झुलसता रहा दाँव पर लगा रहा घर और दिन रैन
खूब खून पसीना बहा लिया, सपना वहीं का वहीं धरा रहा
मुश्किलें इतनी उमड़ती रही, मैं हर पल हर दम उलझता रहा
दोहरी ज़िन्दगी जीता रहा, खुद को अंधेरों में छुपा रखा
वह गाँव की मिट्टी बुलाती रही मैं खून के आँसू पीता रहा
सालों खुद को अंधेरों में रखा खूब देश का क़र्ज़ निभाया
हर निर्माण में मेरा पसीना बहा भूखे पेट भी मैंने फ़र्ज़ निभाया
आज महामारी ने जब जकड़ लिया शहर में मैं बेघर हो गया
इन च
काचौंध गलियों में मेरा व्यक्तित्व बेअसर हो गया
मुझे आज मेरे गाँव पहुंचा दो वो खेत खलिहान मेरी चाह देख रहे हैं
मेरे पाँव के छालों को मत देखो मेरे अपने मेरी राह देख रहे हैं
मैं भूल गया था उस फ़र्ज़ को उस क़र्ज़ को जो जुड़ा था मेरे गाँव से
बस उस नुक्कड़ तक पहुंचा दो जिससे ठोकर मारी थी मैंने पाँव से
दो वक्त की रोटी गर ज़िन्दगी है मेरी तो मैं अपने खेतों में बह जाऊंगा
रम जाऊँगा उस मिट्टी में शायद माँ बाप का क़र्ज़ भी चुका पाऊंगा
मैं टूट गया हूँ बिखर गया हूँ पर न अब थक जायेंगे कभी मेरे पाँव
मंज़िल दूर हो कोसों दूर सुस्ता लूँगा थोड़ा जब आएगी चांदनी की छांव
अब शायद ही मैं लौट आऊंगा, मैं खुद को इतना सक्षम बनाऊंगा
गाँव के निर्माण में योगदान दूँगा नए चिराग नए चमन बसाऊंगा
भूल गया था परंपरा, गाँव के निर्माण में ही देश का है निर्माण
अब मैं रुकूंगा नहीं अब गाँव ही है मेरी मंज़िल गाँव ही मेरा अभिमान