तीखी चुभन
तीखी चुभन
खुली आंखों के ये सपने
कहां सोने देते हैं
और छुपे हुए मुखबिर यहां
कहां रोने देते हैं
आता है उनका ख्याल
अपनी खालिश है जिनसे
ये अनकहे ढेरों सवाल
क्यों न सोने देते हैं
उलझनों में हो चुकी है
गुम कितनी ही सांसे
रात ओ सहर तीखी चुभन
क्यों बिछौने देते हैं
गफलतों के दायरे में
रिश्ते कितने खो जाते हैं
कुछ सफाई मांग लो तो
इल्ज़ाम घिनौने देते हैं
वाह री दुनिया तेरे इशारे
ग़मज़दा क्यों करते हैं
चुरा के मोती सीपियों से
अश्क पिरोने देते हैं......