कितनी ही हसरतें
कितनी ही हसरतें
खाली शीशे तो खनकते हैं
झाड़ियों में कांटे पनपते हैं
किरदार बनाए जिन हाथों ने
उन्हीं के हुनर को परखते हैं
जिन गलियों में करार था
कदम वहीं जाकर रुकते हैं
उदासी रुला तो देती है पर
बेवफाई में कई सिसकते हैं
सांसों को चाहे थामो कितना
कमबख्त अश्क छलकते हैं
सीने से लगा कर जिन्हें रखा
ऐसी कितनी ही हसरतें हैं
रुसवा हूं अपने किरदार से
लोग सिर्फ मतलब निकालते हैं
वक़्त की इस आपाधापी में
उम्र से पल बिछड़ते जाते हैं
क्या उम्र ज़ाया हो रही है
या हालात इसे तराशते हैं....
✍🏼 रतना कौल भारद्वाज
