समाज का अश्लील दर्पण
समाज का अश्लील दर्पण
उसे वस्त्र उतारने को कहा गया
उसने कंपकपाते हाथों से
एक के बाद एक,
एक एक कपड़ा शरीर से अलग किया,
आंखों की नमी छुपाते छुपाते,
बेबसी से तड़पते तड़पते,
आज एक औरत की गरिमा
सिगरेट के धुंए और
कहकहों में
ध्वस्त हो गई।
आंखों में अलाव मौजूद था
पर काम का न रहा था,
अश्क अपनी सरहद से
बाहर आने को बेताब थे
पर माहौल न था।
उसे सामान समझकर
खेला जा रहा था,
और वह चुपचाप दर्द पी रही थी,
अंगारे झेल रही थी।
कई दर्द के पहाड़ उसने ढोए थे,
हिम्मत की कसौटी बांधे रखी थी,
पर कब तक,कहां तक
वह
समाज की अश्लीलता से
बचती रहती।
हर दरवाज़े के पीछे
भूखे भेड़िए नोचने को तैयार थे,
ज़िन्दगी का बोझ आज
इतना बड़ा गया था कि
हालात के आगे वह पस्त हो गई।
बंद कमरे में घिनौनी सूरतें
बेबस खिलौने से खेल रहे थे,
वासना की तेज़ आरियां
एक अबला की मर्यादा को
चीर रही थी।
ठहाकों के बीच
एक
शक्तिहीन अबला का
अंतस्थल चीख रहा था,
पर सुनवाई न थी।
जो कभी हालात से हारी नहीं थी,
आज क्यों निशस्त्र हो गई?
"भूख! भूख! अम्मा भूख!
उठो अम्मा भूख लगी"
यह आवाजें पिघलते लावे
की तरह
उसके कानों में
रिस रही थी,
वह हताश थी।
मैले आंचल के पीछे
छुपा
उसका लजीला बदन
आज उसका दुश्मन बन बैठा था,
आज पसीना हार गया था
और नन्हें आंखों की भूख
ने
इज़्ज़त को नीलाम किया था
और ऐसे एक शक्ति
आज
डूब कर अस्त हो गई थी!
क्या समाज वाकई बदला है
या अभी भी गहरा अंधियारा छाया है?
क्या औरत इस आधुनिक युग
में भी
सिर्फ समान ही है,
जिधर चाहे उधर पटको,
जैसे चाहो वैसे रखो,
जो पंख फैलाए तो पंख काटो?
क्या द्रोपदीयां आज भी
दुर्योधनों का शिकार बनी रही है।
क्या कलयुग में कृष्ण ने
आंखों पर पट्टी चढ़ा रखी है?
क्यों मर्दों को दुनिया में लाने वाली
मर्दों से ही लुटती रही है?
कितने सवाल है
जो स्त्री समाज से पूछती आई है,
परन जाने क्यों किन परिस्थितियों में
सामाजिक व्यवस्था आज भी
अस्त व्यस्त है?
कोई सुनवाई नहीं।
समाज का अश्लील दर्पण ठहाके
मार रहा है और हम.........????????
