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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

5.0  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

"अगन लगी हुई,हृदय भीतर"

"अगन लगी हुई,हृदय भीतर"

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अगन लगी हुई है,मेरे इस हृदय के बहुत भीतर

सत्य वदन कारण,हर रिश्ते से हुए तितर बितर

क्या ईमानदारी,स्वाभिमान की न कोई कद्र इधर

सब रूठे,जैसे सच्चा व्यक्ति सबके लिए है,जहर

इस दुनिया से भरोसा उठ गया है,मेरा इस कदर

अब तो हर कोई अपना लगने लग गया है,मगर

आज के दौर में ईमानदारी से जीना हुआ है,दूभर

हर ईमानदार पर,बेईमान बरसा रहे है,झूठे पत्थर

आज हमारे वही लोग,पीठ पीछे घोंप रहे है,खंजर

जिन्हें मान बैठे थे,हम अपने दुःख निवारक ईश्वर

अगन लगी हुई है,मेरे इस हृदय के बहुत भीतर

कैसे शीतल करूँ मन,जल भी दे रहा,अग्नि कहर

कोई नही सुधरेगा,तू खुद की बदल ले,अब नजर

जो तेरा साथ न दे,तू भी मार दे,उन्हें,अब ठोकर

व्यर्थ के रिश्तों के बोझ से हो जा,तू आजाद नर

यहां आज इंसानी भेष में घूम रहे है,कई जानवर

पहचानना ऐसे पशु,ओर तोड़ देने,शीशों के शहर

जो जैसा व्यवहार करें,तू भी वैसा ही व्यवहार कर

तुझे बनना तो है,साखी एक नेक दिल जैसा शजर

पर साथ रखना तू गुलाब के फूल जैसे शूल नश्तर

सीधी बात बहुतों को समझ नही आती है,यहां पर

कोई व्यर्थ ही परेशान करे,चुभा देना शूल विष हर

बुझानी भीतर अगन अगर,ओर बनना शांत लहर

अपने भीतर ढूंढ सुधा,बाहर है,बस जहर ही जहर

अपने ही अंदर मिलेगा,तुझको यहां पर सुकूँ घर

बाहर तो मिलेगा,तुझको सिर्फ एक मतलबी शहर

बाहरी दुनिया है,बस छद्मता से भरा हुआ,समंदर

जिसमें मोती कई दिखते है,पर असल मे है,कंकर।


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