क्या आया मेरा दौर ये मुफलिसी का
लोग समझकर बैठे,शूल जिंदगी का
जिनका मेरे बिन न उगता था,सूरज
वो कह रहे,अंधेरा मुझे इस सदी का
कपड़ा दुश्मन हुआ,तन की जमीं का
बिना पैसे शत्रु भी शत्रु हुआ,असली का
दे रहे है,दगा साये,अपनी ही छवि का
किसे क्या कहे,मुरजाया फूल कली का
मुफलिसी ने,यथार्थ दिखाया,सभी का
पैसे से कयास लगाते,किसी की खुदी का
इस जहां में कोई भी अपना सगा नही
हर कोई दोस्त,बस यहां पैसे की खुशी का
साथ कोई कुछ न ले जाता,सब जानते
पर सब पाप बांध रहे,पैसे की पोटली का
ईमानदारी से किसी को कोई लेना नही,
सब चाहते है,धन-दौलत पूरी धरती का
मुफलिसी से सीखा सबक,जिंदगी का
बिना पैसे लोग तोड़ देते,रिश्ते सदी का
ये पैसा खुदा नही,पर खुदा से कम नही,
ये पैसा तोड़ रहा,रिश्ते,खुद की बंदगी का
साखी ये मुफलिसी का दौर गुजर जायेगा
पर तू जलाता रह,दीया,अपनी खुदी का
आज न तो कल मिटेगा,साया मुफलिसी का
तू क्यों करता चिंता,तू दास है,बजरंगबली का
चलता चल,गरीबी तो नीवं पत्थर है,भक्ति का
सब,दुःख में ही याद करते नाम,रामजी का
मुफ़लिसी अंधेरा है,भोर की किरण पहले का
दिल से विजय
विजय कुमार पाराशर-"साखी"