यूूँ तेरा, मेरा न होना!
यूूँ तेरा, मेरा न होना!


हौले हौले से बढ़ते ये कदम,
और इनमें बहुत सारा तेरा ग़म
घिसरते बोझ में ये अहसास होता है,
कि कैसे कोई अपना होकर भी बेगाना होता है।
घर का ये सूना कोना-कोना,
और तेरे यूँ पास न होना।
इस उमस में भी हृदय न जाने किस शीतलता से जम रहा है?
साँसें भारी कर अपनी गति में थम रहा है।
आँखें तो जैसे ये रोगल हो गयी।
निरंतर बहे जा रहीं हैं, निर्लज्ज कहीं की।
सिले अधर मोटे हो गये हैं,
शब्दों को बाहर आने की मनाही है,
इसलिए पत्थर हो सीने पर बैठ गये हैं।
अब तो लगता है जैसे या तो प्राण निकलेंगे या ये शब्द,
कैसे हो गयी ये काया बेअदब?
एक लंबी-सी साँस,
जीवित होने का प्रमाण है।
परन्तु ये जीना भी भला कोई जीना है,
जिसमें तुझ बिन रहने का ही ईनाम है?
एक जीवित लाश।
विचारशून्य।
बिन अहसास, बस अविश्वास!
अश्रुओं को चुनौती है,
भावों के सरोवर के जलस्तर में वृद्धि करने की,
सो निःशब्द हो, पालन किये जा रहे हैं।
और हम बेजान जिए जा रहे हैं।।
उदर से आस है,
कि वो खिंचती लंबी साँसों से छीन,
भस्म कर दे इस ग़म को वहीं कहीं।
परन्तु यह ग़म भी तो नासूर होता है,
जब लगे कि विराम लगा,
तभी तड़़प की लहर को,
प्राणघातक कर देता है।
क्या करे भला?
दिल का टूटना कुछ होता ही ऐसा है।
यह भी सच है कि
कपटी दिल कहाँ टूटता है?
भावनाएँ चोटिल होती हैं,
और दिल तो पूर्व की ही भांति
रक्त संग धमनियों एवं शिराओं में
अटखेलियाँ करता है।
इन्हीं अटखेलियों में बहता है
चोटिल भावानाओं का आघात।
जिसका अहसास करता है,
देह में तांडव दिन-रात।
इस धीमे ज़हर से ये तन जीर्ण हो रहा है,
चेतना-अचेतना के भेद के भूलभुलैया में रो रहा है।
निश्चेष्ट दृष्टि में अदृश्य प्रतिबिम्ब से
मानो एक ही प्रश्न होता हो
कि कब समझोगे तुम मेरे अपनत्व को?
कब महसूस करोगे मेरी आत्मा को?
कब सम्मान करोगे मेरे स्नेह का?
क्या बस मोल है मेरी देह का?
तुम्हारे इन झूठमूठ के वाक्यों से
अब दिल बहलता नहीं।
स्नेह है तुम मत कहो,
पर अपनी परवाह में जताकर तो बताओ कभी।
मेरी सिसकियाँ यदि तुम्हें न सुने,
तो कैसे मान लूँ कि फ़िक्र है मेरी तुम्हें।
अब यूँ मन को न मैं मना पाऊँगी।
दिल के कोने में तुम्हें न बिठा पाऊँगी।
सब कहते हैं कि हम अच्छे दिखते हैं साथ,
फ़ोटो में हमारी मुस्कुराहटें होती हैं खास।
पर मैं कहती हूँ कि तुमसे भी झूठे ये फ़ोटो हैं,
हर तस्वीर में लोग मुस्कराते ही तो दिखते हैं।
जब झाँको इन तस्वीरों के भीतर
तो मन में मैल और जिगर में धोखे हैं।
कुछ यूँ ही तो है हमारी भी तस्वीर,
कभी हाथों में हाथ
तो कभी अथाह प्रीत।
पर यदि तस्वीर ये सब बोलतीं
तो ये सारे राज खोलतीं।
तो यूँ दिल में न होती पीर
अटकती साँसें और नैनों में नीर।
बस यही धोखे तो रास नहीं आते मुझे,
बस यही तो ले जाते दूर मुझसे तुझे।
जिस दिन तुम मुझे सच्चाई से चाहोगे,
यकीन मानो मैं तुम्हारी और तुम मेरे हो जाओगे
तुम मेरे हो जाओगे।।