एक नाजुकसें मोड़ पर
एक नाजुकसें मोड़ पर
एक नाजुकसें मोड पर,
जो तुम मिल गये,
संभले हूये थे हम,
क्या पता कैसे फिसल गये...
अनजाने में ही हम,
फिर यूँ ही मिलते रहे,
आदत बन गई जो,
क्या पता कैसे फिसल गये...
रात की रेशमी मोड पर,
तुम्हारी आहटे आती रहे,
सुकून की हुई सुबह तो,
क्या पता कैसे फिसल गये...
खामोशियाँ भी हमसे,
अब ढेरों बाते करती रहे,
चुप से रहते थे हम,
क्या पता कैसे फिसल गये...
हरपल आँखो से,
ख्वाब तुम्हारे छलकते रहे,
युँ ना पागल थे हम,
क्या पता कैसे फिसल गये...
मीठी सी चुभन दिल में,
हरवक्त चुभती रहे,
हम अपनेही खयालो में,
क्या पता कैसे फिसल गये...
रंग चढा जो मुझ पें ये लाल,
और गहराता रहे,
धुल ना पाये किसी मौसम में,
क्या पता कैसे फिसल गये...