प्रीत का शामियाना
प्रीत का शामियाना
पूष की एक शाम
शिप्रा के घाट पर बैठे
तुम्हारा अतीत से उलझते
पानी में कंकर फेंकना !
मेरा उसी वक्त संकरी राहों से
टप की आवाज़ से
कुँवारे पायलों की छम-छम सी
ताल मिलाते गुज़रना !
तुम्हारा मूड़ कर देखना,
मेरा कनखियों से तकना.!
आहा...
उलझ गई नज़रें
मेरे तो उर में हलचल मची
नज़रें क्यूँ झटक ली तुमने.!
"उस पुराने साये की दहलीज़ से
एक कदम बाहर निकलो"
जैसे काले साये का दामन छोड़कर
आगे बढ़ती है रात
भोर की रश्मियों को छूने.!
मेरे उर आँगन में
कदम रख दो एक मुट्ठी उजाला
बिखेर दूँ तुम्हारी राहों में
छंटने दो बादल तन्हाई के.!
साथी ना समझ बस साथ चल,
शिप्रा की वादियों में संग
चलती रहूँगी सदियों तक.!
"अतीत को भूलना मुश्किल सही
गर खजाना मिले प्यार का तो,
नामुमकिन दुनिया में कुछ भी नहीं"
बढ़ाओ ना एक कदम उजाले की ओर।
मेरी चुनरी का शामियाना
सही लगे तो अतीत की धूप से
झुलसते खुद को सौंप दो मुझे.!
मेरे जहाँ में बेवफाई का बरगद नहीं,
अमलतास सी वफा की
छाँव ही छाँव बरसती है।