धूप और बनारसी साड़ी
धूप और बनारसी साड़ी
आज सूरज के तेज में कुछ अलग ही चमक है
आज हवा की खुशबू भी महकी महकी है
आज धूप भी कुछ गुनगुना रही है
आज पंछी भी मस्ती में गा रहे हैं
वो जो सोचा ना था कभी
वो जो देखा ना था कभी।
वो मंजर देखा है आज
मोर सड़कों पर नाच रहे हैं
हिरण निर्भय निडर निर्भीक घूम रहे हैं।
समय का कोई अहसास नहीं है
किसी के आने की भी आस नहीं है
तेरे संग यह इक इक पल कितना बेफिक्र सा है
थमा थमा सा झील सा गहरा सा है
किसी झरने सा बदहवास नहीं है
सुनो रुको ज़रा हाथ दो।
दौड़ती भागती इन सड़कों सी ज़िन्दगी पर
इक इक कदम लेकर चलते हैं।
वो जो लम्हें कल के लिए बचा कर रखे थे।
चलो उन्हें आज में जी लेते हैं।
अक्सर अधूरी रह जाती हैं कुछ बातें।
दौड़ते हुए दिन के उस एक पल के इंतज़ार में
ना जाने बीत जाती हैं कितनी रातें।
यही सोचते हुए मुझे याद आई तुम्हारी
वो इक बात।
"साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम
पहना करो अच्छी लगती हो।<
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जब तुम बिंदिया लगाके पल्लू को
संभालती हो तो इक ग़ज़ल सी दिखती हो"।
यही सोचकर मैंने वोह लाल बनारसी साड़ी निकाली।
जो तुम गये बरस लाये थे और मैंने सहेजकर रख दी थी।
सोचा था कुछ खास होगा तो पहनूंगी,
मौसी की बेटे की शादी या ननद के घर का मुहूर्त,
तभी तुम्हारे सामने इतरा के चलूंगी।
उन झुमकों और कंगन के साथ
तभी दिल ने इक दस्तक दी और पूछा
क्यों उस अनदेखे अनजाने कल का इंतज़ार
खिड़कियों को खोल दो अब धूप को आने दो।
उस कल के इंतज़ार में मैं आज को क्यों जाने दूं
लो मैं तुम्हारे सामने आ गई फ़िर करके श्रृंगार
अक्सर कुछ रिश्ते बैठे रह जाते हैं
अधूरे अपनी चौखट के बाहर
चलो उनको पुकारते हैं,चलो कल के लिए रखे हुए
उन पलों को आज में ही जीते हैं।
वो जो दिल की गुल्लक में सपने संभाल के रखे हैं ना
चलो उस गुल्लक को तोड़के उन सपनों को जीते हैं
चलो हम-तुम फिर बैठ के सुबह की चाय एक साथ पीते हैं।