मज़हब
मज़हब
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्ज़िदों की खबर नहीं
जो किसी के काम ना आ सके मेरी ज़िन्दगी की कद्र नहीं ।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्जिदों की खबर नहीं
जो किसी के दर्द को ना पढ़ना सकूं,मेरी आंखों में ना वो नूर दे।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्ज़िदों की खबर नहीं
किसी गिरते को संभाल लूं,मुझे आज इतना ताब दे।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्ज़िदों की खबर नहीं
किसी के दिल का सकून बन सकूं मेरी ज़िन्दगी को वो सबब दे।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्जिदों की खबर नहीं
तेरी अजमत को कबूलूं मैं ,तेरी अजमत को कबूल करूं मैं
जो तू मुझे भूख से बड़ा कोई मज़हब दे।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्ज़िदों की खबर नहीं
वो ही राम की है खिचड़ी जो रहीम की है खीर है।
तुझे रोज़ छप्पन भोग हैं लगते तुझे रोज़ छप्पन भोग हैं लगते
मेरे बर्तन में रोटी नहीं, मैं तेरी इबादत मै क्या करूं।
मुझे मन्दिरों का पता नहीं मुझे मस्ज़िदों की खबर नहीं।