रक्षाबंधन और ख्याली पुलाव
रक्षाबंधन और ख्याली पुलाव
मेरे प्यारे भाई ऐसा नहीं है कि मुझे साल में
इक चुने हुए दिन ही तेरी याद आती है
पर साल के इस दिन मुझे तेरी बहुत याद आती है।
याद आतें हैं वो बचपन के दिन
वो साइकिल की रेस वो मैगी पे लड़ाई
वो सर्दियों की रात को रजाई के अंदर खेलना फिर छूप्पन छुपाई।
यह कहके मैं तुझे कितना ही डराती थी।
कि तुझको हम मंदिर की सीढ़ी से उठा के लाएं हैं।
बड़ी थी ना तुझसे, इसलिए तुझपे बहुत रौब जमती थी।
ना जाने कहां फुर्र हो गया वो बचपन पल में।
अब ढूंढती हूं, कहीं किसी मंदिर की सीढ़ी पे मुझे वो
बचपन वाला भाई फिर से मिल जाए।
जिसके साथ बैठके मैं फिर वोही मैगी खाऊं।
चंपक नन्दन लोटपोट की दुनिया की सैर करके आऊं।
खूब सारे ख्याली पुलाव बनाऊं,कुछ खुद खाऊं,कुछ उसे खिलाऊं।
हां पर ख्याली पुलाव तो मैं अभी भी बनाती हूं।
अपनी एक ख्याल को मैं धीमी आंच पे खूब सुलगाती हूं।
कि इस साल मैं, मां के घर जाऊंगी।
और खुद अपने हाथों से अपने भाई को राखी बांधके आऊंगी।
पर वो साल भी हर साल की तरह हर साल नहीं आता है।
वो बचपन की फुर्सत,और फुर्सत का बचपन ,
जिंदगी में कहीं किसी मंदिर की सीढ़ियों पे छूट जाता है।
फिर स्टेटस और डीपी पे तेरी मेरी फोटो रखके,
मैं दिल को बहलाती हूं।
अभी भी मैं ख्याली पुलाव बहुत बनाती हूं।