पल
पल
मैं अपने हिस्से की ज़िंदगी जीना चाहती हूँ
मैं जहाँ मैं सिर्फ़ मैं हूँ
माँ पत्नी बेटी बहु से कुछ लम्हे चुराना चाहती हूँ
इस छोटी सी ज़िंदगी में
मैं अपने आप को खोजना चाहती हूँ
इस शोर के जंगल से दूर दौड़नाचाहती हूँ
अधर के उस सन्नाटे से लिपटना चाहती हूँ
रेत की तरह हाथ से छूट रही है ज़िंदगी
मैं इसे पकड़ना चाहती हूँ
घड़ी के काँटों से मुँह फेरना चाहती हूँ
पत्तों की सरसराहत को कान में पहनाना चाहती हूँ
वो ललाट पर आए बालों की
सफ़ेदी धीरे से मुझसे कहती है
मत रंग दे मुझे “मैं तुझसे मिलना चाहती हूँ”
धूप में चल चल कर मेरे पाँव छिल गए हैं
कुछ पल के लिए थामना चाहती हूँ
तेरे आँचल की छांव में पसरना चाहती हूँ
माँ मुझे अपने आप में सामाँ ले
मैं फिर से तेरे गर्भ में सोना चाहती हूँ
जहाँ ना दिन है ना रात है
बस एक नई शुरुआत है
फिर से उसी डोर से बन्दना चाहती हूँ
तेरे आँगन में नन्ही परी बनके बाबा
फिर से खिलखिलाना चाहती हूँ
सुनो, मैं आज तुमसे कुछ पल माँगती हूँ ज़िंदगी
मैं बिना किसी की इजाज़त के जीना चाहती हूँ।