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Vandana Srivastava

Abstract Inspirational

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Vandana Srivastava

Abstract Inspirational

कुर्सी की माया

कुर्सी की माया

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कुर्सी की माया ऐसी जो चिपक गया सो चिपक गया,

जिसको नहीं मिली अभी तक वो उसके चक्कर में घूम गया..!


राजनीति की बुरी बिमारी जंग का मैदान या बना अखाड़ा,

गोल गोल सा घूमे ऐसा कि ना जाने भूगोल बिगड़ कर किधर गया..!


ना पहचाने रिश्ते नाते मतलब पर पांव हैं जमने हर बार,

जनता की पूछो ना कोई पांच साल का मतलब निकल गया..!


जार जार जनता है रोती जिसको चुना वो किधर गया,

ऐसा जादू से हु़आ है गायब ढूंढो ढूंढो कहां फिसल गया..!


राजनीति का चूल्हा जल रहा मतलब कहीं कुछ पक रहा है,

अपनी दाल गला कर सबके हाथ में शून्य थमा कर निकल गया..!


घोषणापत्र और खोखले वादों का पकड़ा कर झुनझुना,

तुम खेलते रह गये और वो तुम्हें खेल बना कर चला गया..!


सब जानते हैं वो पढ़े लिखों की शराफत वाली कमियां ,

तुम करते रह गये जोड़ घटाना वो इतिहास बदल कर चला गया..!


ठगे खड़े रहते हैं हर बार पात्र कुपात्र की कैसे करें पहचान,

जनता सोचती ही रह गई वो कुर्सी पर चढ़ महान बन गया..!


आती है बड़े अच्छे से उसे लुप्त होने की कला ,

करते रहो पुकार वो कान में तेल डाले सो गया ..!


तुम्हारे ही पैसों पर वो भरेगा जेब और तिजोरियां,

गली मुहल्ले पर तुम दोगे गालियां वो धूल झोंक कर निकल गया..!


हर बार भौंचक्के हो देखते हो उसकी काली करतूतें,

फिर क्यों नहीं करते अधिकारों का प्रयोग जब वो कहे

अरे ये क्या नोटा दबा कर निकल गया..!


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