मौन भाषा
मौन भाषा
एक स्त्री को पता होता है,
स्पर्श की गहन मूक भाषा,
प्रेम में लिपटी हुई रजनीगंधा,
या क्रोध में तमतमाई ज्वाला,
स्नेह का स्पर्श है या,
वासना की है अभिलाषा,
वो समाहित कर लेती है प्रेम को,
और झटक देती है पर पुरूष स्पर्श,
आनंदित होती है प्रेमी के प्रेम पर ,
उग्र हो जाती है जब छूती है गंदी निगाहें,
मोम सा पिघल अपने ही प्रेमी समान हो जाती है,
दामिनी सी चमकती है और समा जाती है,
लुटा देती है अपना सर्वस्व ,
अपना लेती है शर्म हया का वर्चस्व,
स्वयं का वजूद भूल कर परिजात हो जाती है,
संजो कर ख्वाब स्त्री से प्रेमिका हो जाती है,
उसकी हर इक नजर बस प्रेम प्यासी है,
प्रेम में वह राधा मीरा प्रेमनगर वासी है,
प्रेम केवल प्रेम ना कोई परिभाषा है,
उपमा अलंकार से परे यह मौन भाषा है,
जोड़ घटाना गुणा भाग,
लाभ हानि से वंचित है,
संवेदनायें जो पनप रहीं भीतर,
वह हृदय भीतर संचित है ,
प्रेम क्या है और क्या है प्रेम कीपराकाष्ठा,
त्रिवेणी में ज्यों विलीन हो मानस जन की आस्था,
प्रेम ही पूजा प्रेम ही भगवन,
प्रेम रहित क्या है ये जीवन,
प्रेम नहीं है बंधन आजाद पंछी है,
प्रेम मुक्त आकाश की सीमा जितना अनंत है,
प्रेम मधुर माधुर्य जीवन की उत्पत्ति है...!!
