योजनगंधा
योजनगंधा
आज वही यमुना, वही नीर, वही तीर।
वहीं बैठी थी वो लिए अपने हिए धीर।।
दुग्ध धार ज्यूं बह रहा था वो निर्मल नीर।
कोमल देह सुरभित, किन्तु श्याम वर्ण शरीर।।
फैली वन, उपवन मादकता ये मधुमास की ।
सब थे, मृग, खग सब थे और थी वासवी ।।
आम्रवल्लियों से महक रहा था उपवन ।
इधर योजनगंधा बैठी थी लिए चितवन।।
उफनती लहरियों का, वह संगीत मधुमय।
इधर उफन रहा यौवन, वासवी युव-वयः।।
यमुना लहरें भी उछल उछल देख रही ।
फेन अपना उसके तन पर फेंक रही ।।
भीगी पिडंलियाँ, भीगा वक्ष यौवन सारा ।
मदमस्त था यमुना क भी वह किनारा ।।
देख यौवन अनावृत उसका कोयल कूक रही ।
धधकती यौवन ज्वाला में जैसे घी फूँक रही ।।
देवलोक, इन्द्रलोक, यमलोक रहे सब यह देख।
इधर कामदेव ने भी अपने सब शष्त्र दिए फेंक।।
यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मानव देखे सब बेसुध हो जाएँ।
लगी होड सब मे पलभर रूप कामिनी देख पाएँ।।
ऊषा, ज्योत्सना सा था, कितना यौवन वह स्मित।
भूल अपनी ही कस्तूरी गंध, मृग कितना विस्मित ।।
कुसमित कुंज मे पुल्कित पुष्प अलि प्रेमालिंगन।
मधुकर भी मकरंद उत्सव मे हुआ देखो संलग्न ।।
डोले सुना सुनाकर, गीत वो गाए प्रेम राग के ।
पहुँच गया जलने वो परवाना निकट आग के।।
मृग भी पहुँच गए देखो गंधाकर्षण मे खिंचे हुए ।
मंद मंद मुस्कान लिए अधर मधुरस वो सिंचे हुए ।।
सुरभित शीतल समीर बह रही थी मन्द मन्द ।
योजन दूर भी उपस्थिति कह रही थी वह गंध ।।
हाँ वही थी वह गंधवति, मत्स्यगंधा, गंधकाली।
अधरों पर लिए बैठी थी जो, मधुरस की प्याली ।।
चन्दन वन में जूही, चमेली जैसे थी वो वासवी।
किन्तु था व्याकुल मन, ना कोई तनिक पास भी।।
कोमल बाँहें फैला, जैसे आलिंगन जादू जगाया ।
मन चितवन से व्याकुलता, आलस को भगाया ।।
अब वो चंचल हिरणी सी तक रही चहुँ ओर ।
जाग उठा था अब वो यौवन प्रलय घनघोर ।।
जो कस्तुरी गंध से महक रहा तन महका-महका ।
निर्लज्ज हवा का झोंका भी यूँ डोले बहका-बहका ।।