एक कंकर मुझे मारने दो
एक कंकर मुझे मारने दो
शीतल मंद चांदनी सी
मन पर ओढ़े
बर्फ की चादरों पर चादरें
कितनी खामोश नज़र आती हैं
स्थिर शांत
झील सी ,
नीली गहरी आँखों की गहराई में
कितने अरमान दफ़न सीने में
सुलगते ज्वालामुखी से प्रश्न
अनुत्तरित
किन्तु जला रहे हैं
भीतर ही भीतर
और
पूछते हैं
कहाँ है तेरी वो कमशिनी
वो बेबाक निश्छल हंसी
और वो
हाँ वो अल्हड़पन।
क्यों ओढ़ लिया
धधकते लावे पर
बर्फ का लिहाफ
आज
मुझे मारने दो एक कंकर
तुम्हारे मन की उस झील पर
जिसके भीतर पिघला लावा है
जो
बेताब है बर्फ की चादर को तोड़कर
बहार बह जाने को
अपने आगोश में ले
किसी को जलाने को।
एक हलचल तो होने दो
इस ठहरे पानी में
सजने दो होठों पर कजरी
बरसने दो मन सावन को
गूंजने दो देह राग पावन को
मंद सप्तक सा
कोमल मध्यम में।
देखना
तुम्हारे तन सुवास से
पावस भी महक उठेगी
और
तुम बन सावन की बदरी
बस यूँ बरसो
टूट जाएँ सारी
ओढ़ी वर्जनाएं
सारे एनीकट
बन नदी तुम
सागर से मिलने को चलो
बस एक कंकर मुझे मारने दो
तुम्हारे मन की
इस बर्फीली शांत झील में।