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Pranav Jain

Romance

4.9  

Pranav Jain

Romance

इक बेंच

इक बेंच

1 min
246


एक बेंच, कुछ पेड़ 2 चाय, 3 रास्ते और कुछ बातें,

घड़ी की सुइयों से पल-पल निकलते पल,

मुरझाया हुआ मौसम,

और कम्बल सी ओढ़ने को बेताब दिसंबर की रातें,

कीचड़ और धूल सने रास्ते, उनपे मेरे जूतों के निशान,


गले में चाय के दाग लगा मफलर और

नाखुनों से उलझते दस्तानों की दास्तान,

कशमकश में टोपे से निकले बाल उड़ाती ये हवायें,

और अपने बनाने से बिगड़ने तक के किस्से सुन्नते यह घर,

जो चीख़ते है किसी साल के किसी दिन के किसी पल की यादें,


जो जार-जार हो चुकी है समय की जल्दबाजी में,

मातम है शहर में की इतने दिनों से सूरज नही देखा,

की अभी भी बेहोशी मे चल रहे है गली के सारे फूल,

मन में आता है कि कोई बना दे उनके लिए भी स्वेटरें,

और साथ बैठ कर सूरज निकलने का इंतजार करें,


रफ्तार में रास्तों पे छटपटाती गाड़ियां,

नमी की अधगिरी बारिशें और,

आंखों तक पहुचती कापती सी सहमी सी धूंध,

वही घर वही दरवाजा और वही चिमनी के नींचे जलता अलाव,

वो खाने के झूठे पड़े बर्तन, और सर-सर झोंके

से किताबों के पन्ने हिलती हवायें,


वो डायरी, वो फोनबुक, और सारे वो लम्हे,

में दरवाजे के सिरहाने बैठा तकिये को बहो में लिए,

की शायद घड़ी की सुइयों से खींचते समय

को हाथों से पकड़ के रोक लूँ,


पर ये मुममिन नहीं और

इसी तन्हाई में गुमसुन अकेला बैठा मैं।


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