फितरत यार की.....
फितरत यार की.....


शाखों पे था पतझर, कलियां झर गई ऐतबार की,
नफ़रत सिमट गई थी दरारों में,जख्मी प्यार की।
रंग बदलने की उनकी,वो अदायें देखकर....,
मौसम से भी ज्यादा बदल गई थी, फितरत यार की।
सींचकर जिनको संवारा, मैंने अपने प्यार से..,
वो वफ़ा-ए-यार झरती रही, हरसिंगार सी...।
काश तुम खुद नींव रख देते, मोहब्बत की नई,
मर्यादाएं शेष रहती...,शबरी के इन्तजार की।
मैं जिन्हें अपना खुदा समझे रहा,इस उम्र भर,
उनको आती थी अदायें,प्रीत के व्यापार की।
खुद की खातिर जो खड़े करते रहे,मुझ पर सबाल,
फिर भला बाकी कहां थी, बात किस अधिकार की।
वो बड़े सौदागर थे...,इस इश्क के बाज़ार के...,
उनमें कोई शर्म बाकी थी... कहां, संसार की।।