चाहत समझ बैठे
चाहत समझ बैठे
मेरी जानिब उठी थी नज़र, इजाजत समझ बैठे,
फरेबी मुस्कराहट को भी, शरारत समझ बैठे।
वो मेरे ख्वाब जलाने को, शमा जला रहे थे,
दिल-ए-नादान थे, हम उनकी इबादत समझ बैठे।
जनाजा ख्वाहिशों का गुजरा, जब दहलीज से उनकी,
खुशी के आंसू थे आंखों में, हम चाहत समझ बैठे।
तमाम उम्र बो हंसके, नज़र करते रहे फरेब,
डूबकर नशेमन में, अदा-ए-नजाकत समझ बैठे।
बो बहुत खुश हैं बस ये सोचकर, खामोश रह गए,
आंख रोती रहीं और लोग शहादत समझ बैठे।
वफाएँ,प्यार अब कुछ भी नहीं, जलते शरारे हैं,
शमां से जलकर मर जाने को, मोहब्बत समझ बैठे।
वक्त था रुखसती का, अश्क छलके, होंठ मुस्काये,
हमारे हाल-ए-दिल को "नीरज",वो आदत समझ बैठे।