सखी साजन
सखी साजन
हे सखी, हैं साजन तेरे
मेरे तो अरदास
तन मन में तेरे बसते हैं
मेरी पीर में उनका वास
पायल, बिंदिया, कंगन, झुमके
सजे हैं तेरे रूप
मेरे नयनों से झरे हैं
बस बनके मोती रूप
तू उनके मन को भायी है
उनके जीवन को रस कर
मेरी कुटिया धूप छाँव है
सबकी पहुँच से दूर गाँव है
मुझको न तो आस कोई
ना मन में है बात कोई
मै सो जाती रोज़ सखी
अपनी यादों को बिस्तर कर
हे सखी, तू प्रेम मूर्ति
बन उनके जीवन की पूर्ति
तू उनकी आलिंगन है
तू ही उनकी साजन भी
मेरा स्नेह तो गंगाजल है
बरबस निश्छल और कोमल है
उनके हृदय में रहे तू पल पल
मन मंदिर की आभा तू
तेरा मेरा कोई द्वेष नहीं है
मन मे कोई उद्देश्य नहीं है
उनका आज तू सुंदर कर दे
कल में तू भर दे उल्लास
मैं तो हूँ बस "कीर्ति"
जो कल बन जाऊंगी इतिहास
हे सखी, हैं साजन तेरे
मेरे तो अरदास...