कविता
कविता


तुम्हारी यादों के सफ़र पर
रोज रात निकल पड़ती हूँ
तुम्हारे दिए उस वादे के सहारे
कि तुम सदा मेरे रहोगे।
मैं खोल देती हूँ सब खिड़कियां
और दरवाजे मेरे दिल के
जिससे होकर आ सके तुम्हारे
उन गुलाबों की खुशबु
जो तुमने दिए तो नहीं
पर रोज उगाते हो तुम
अपनी आँखों में
मेरे नाम को सुनकर।
अधलेटी सी तकिये को
थाम कर बाहों में
मैंने कभी नहीं सोचा
कि तुम मेरी बाहों में हो
क्योकि मैं जानती हूँ
तुम मेरी निगाहों के कमरे में
टहलते रहते हो
और पाकर मुझे अकेला
तुम मुझमे खुद को
नुमायां कर दोगे।
रोज सुबह की धूप में
बालो को सुखाते
मैंने हवा की उंगलियो में
तुम्हे पाया है
और कभी धुप की तपिश सी
तरेरती तुम्हारी आँखों में
खुद को ज़माने से
छुपा लेने का फरमान पाया है।
मैं छाया हूँ तुम्हारी
हर कदम तुम्हारे
साथ चलती हूँ
हर जन्म तुम्हारी होने
की चाहत लेकर
बून्द बून्द ज़िन्दगी
जिया करती हूँ
क्योकि जानती हूँ
हमारा साथ शाश्वत है
मुझे तुम्हारी और तुम्हे मेरी
और किसी से भी ज्यादा
बेहद जरुरत है ।
है न?!