अपूर्ण हूँ
अपूर्ण हूँ


ए पूष की कुनी धूप
तप्त कर दे मेरे ठंड़े एहसास को
अमलतास की छाँव
शामियाना कर दे सर पर मेरे
विजय के लम्हों को तरसते
मेरे वजूद पर नक्काशी की चादर दे
होली के रंगों को मनुहार करूँ
परास्त कर इन परिस्थितियों को
पराजय के सिलसिलों से हार गई हूँ
चाँद अपने उजाले उधार दे
इन अश्रु की नमी को गौहर दे
आदित्य तेरी आभा दे
झिलमिलाता आईना हूँ
मेरी छवि को उभार दे
भर लो ना सब मुझे बाँहों में
अपूर्णता की क्षितिज पर बैठे
थक गई हूँ नारी जो हूँ
आँगन में मेरे नृत्य करो सब
होंठों को मेरे हंसी दे दो
कदम रख दो सारे नज़ारे
मेरी दहलीज़ पर खेलो
तुम्हारी आहट पर मुझे
कुछ पूर्णता का आभास तो हो।