मोहताज क्यूँ रहूँ
मोहताज क्यूँ रहूँ


मैकदे का मोहताज क्यूँ रहूँ ?
महबूब की पुतलियाँ प्रेम बरसाते
पिलाती हो जिसे जाम-ए-इश्क
किसी और नशे में वो बात कहाँ।
तलबगार हूँ बड़ा तलबगार
उन नैनों की हाला का,
मौत भी आ जाए उनमें डूबकर
तो भी मलाल नहीं।
क़तील हूँ जलवा-ए-माशूक का
सिक्कों सी खनखनती हँसी का
दिल बेइन्तहाँ कायल है।
मरमरी बाहें, मदहोश निगाहें
लबों पर ठहरी तिश्नगी कम्माल है !
कहो क्यूँ छुए कोई बोतल या प्याला
जिनकी लकीरों में लिखा
मैख़ाने का बेनमून पर्याय है।
महबूब नहीं मेरा आम सा
नखशिख प्रेम का पियाला है,
संजोकर रखना है नैनों के नूर को
नाचीज़ को खुदा से रहमत में मिला
बेशकिमती नगीना है।