मम्मी सी मैं
मम्मी सी मैं
उम्र की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ती हुई
मैं मम्मी सी होती जा रही हूं।
अक्सर बच्चे भी मेरी किसी बात पर
हँस के बोल देते हैं,
मम्मी, आप तो नानी सी होती जा रही हो।
कुछ खामोश और कुछ मुखर हो गई हूं
अकेले में कुछ सोचकर मम्मी की तरह,
अब अपना सिर हिलाने लगी हूँ।
धड़क जाता है दिल मेरा कभी..
जोर की आवाज से,
तब लगता है, हाँ...मैं मम्मी सी होती जा रही हूं।
चालीस के पायदान पर आकर जब कमर दुखती है,
याद आ जाता है मम्मी का अपनी कमर पर,
दर्द का कोई ट्यूब या तेल लगवाना।
तब कहाँ समझ पाते थे ,
उनकी पूरी- अधूरी ख्वाहिशों और जिम्मेदारियों को ढोती,
उनकी रीढ़ ने थकना शुरू कर दिया था।
बच्चों को पास बुलाने और उनके साथ समय बिताने का,
एक बहाना ही मानकर उन्हें छेड़ कर
हँसने पर , वह भी खुलकर मुस्कुरा देती थीं।
पर अब सब समझ आता है,
जब मैं उनकी ही तरह जानबूझकर
बचपना करने लगती हूँ,
कभी गुदगुदी कर तो कभी बातों से,
बच्चो को चिढ़ाने लगती हूँ।
और कभी,
बढ़ती उम्र के अकेलेपन से घबरा कर,
जब मैं अपने बच्चों को पास बुलाकर,
उनकी फिक्रमंद छुहन को महसूस करती हूं,
सच में, अब मैं अपनी मम्मी सी होती जा रही हूं।
भूल जाती हूँ बोलते- बोलते कुछ शब्दों को,
और जब एक ही बात को बार- बार सोचने लगती हूँ।
नाराज हो जाती हूँ किसी बात पर सभी से,
पर कौन मनायेगा मुझे ये सोचकर खुद ही मान जाती हूँ।
खुद से ज्यादा जब अपने बच्चों की फिक्र ,
उनकी झिड़कियाँ सुनकर भी किया करती हूं,
उस वक्त, मैं बिल्कुल अपनी मम्मी सी हो जाती हूँ।
रात में जाग कर ,होंठों पर उंगली रखकर
मैं जब छत को निहारने लगती हूँ,
तब याद आता है , मम्मी भी तो ऐसे ही सोचा करती हैं।
पर क्या वह भी मेरी ही तरह अनगिन ख्यालों में,
डूबी होती थीं, या किसी नयी रेसिपी
या स्वेटर के किसी डिजाइन को सुलझाती थीं।
रात के खाने और सुबह के नाश्ते को सोने जाने के पहले ही,
जब मैं तय करने लगती हूँ, तब मुस्कुरा देती हूं
क्योंकि अब मैं बिल्कुल अपनी मम्मी सी होती जा रही हूं।
