मन
मन
आज फिर खाली है मन,
कहीं किसी खिड़की से
देखते हुए दूर तक..
आज फिर खामोश है
सड़कों पर टहलता मन।
यूँ ही यहां- वहां
चहलकदमी करता
खाली दराजों में
न जाने क्या टटोलता
सीली लकड़ी सा सुलगता
धुआँ- धुआँ है मन।
बन्द दरवाजों के पार
न जाने क्या होगा
कुछ अटकलें लगाता
फिर खुद को झिड़कता
शून्य सा पूर्ण होकर भी
अपूर्ण सा मन।
बेबस सी आती जाती
साँसों को सहलाता
कुछ बर्फीले लफ़्ज़ों से
कंपकंपाता , थरथराता
कोने में ठिठुरा हुआ मन।
मन... जो कभी जिंदा था
जिसने सावन के झूलों की
पेंग के साथ छुआ था आसमान
आज वही तन्हा
धूमिल अधपका सा
अनमना सा है मन।
क्योंकि....
कभी - कभी प्यार से
मन की अनछुई परतों को
छू जाते हैं हवा के झोंके
अनकही बातों से
भरोसे में ले आते हैं उजाले
और जब मन यकीन कर
मुस्कुराने लगता है
तब बेबात कठघरों में
खड़ा कर देते हैं लोग मन।