चलो ,घूम आते हैं
चलो ,घूम आते हैं
चलो, घूम कर आते हैं
कहीं ऐसी जगह
जहां आज से पहले
कोई न गया हो।
जहां कोई स्वर अनादि काल से
कभी नहीं गूंजा हो
चलो, घूम कर आते हैं
उन निर्झरों के किनारे
जिनकी कल–कल के
मूक श्रोता भी हम हो
और दर्शक भी ।
चलो, आज मन के प्रांगण में
घूमते हैं
यहां सदियों से
विचारों ने आवाजाही रखी है
किन्तु कभी कोई कदम चाप
इसकी हरी दूब को
नहीं छू सकी।
एक नहीं, न जाने कितने
झरने झरते हैं
और कितने ही सोते
इसकी तलहटी से फूट पड़ते हैं
जिनको भूगोल की किताबों
और मानचित्रों में
कभी नहीं ढूंढ पाओगे।
सुप्त ज्वालामुखी भी
धुंआ उगलते हैं
किंतु इनकी उर्वरा धरती पर
न जाने कितने ही स्वप्न
पनपते रहते हैं,
यह जानते हुए भी कि
किसी दिन विध्वंस के
गर्म लावे में उनका समूल
नष्ट हो जाएगा
लेकिन उसके पहले
कुछ स्वप्न चांद को
छू चुके होंगे।
चलो, घूम कर आते हैं
स्वप्नों की चमकीली
दुनिया में ,
उन स्वप्नों से हाथ मिलाते हैं
जो खुली आंखों से
हकीकत की
जमीन पर उतर आने को
व्याकुल हैं।
चलो न, घूम आते हैं
मन की वादियों में
मेरे मन की ...
सघन वादियों में
पर...
तुम्हारे कदमों तले अभी काफी
जमीन बाकी है मापने के लिए
और मैं इन जमीनों को पार कर
अब घूमना चाहती हूं
अंजानी, अनछुई घाटियों
बादलों को।
चलो छोड़ो, मैं अकेले ही
चली जाती हूं, हमेशा की तरह।