मैं तुम्हें भूलता जा रहा हूँ
मैं तुम्हें भूलता जा रहा हूँ
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मैं तुम्हें भूलता जा रहा हूं
बेहोशी से, खुद को भूल कर
अपने उस प्रेम को,
जो किसी संगम सा है !
जो मुझे मिलाया करता है
हर वक्त अपने सागर से
जहां शोर है बहुत बेवजह
पर मिलने का एहसास,
करवाता है कोई,
वजह बतलाकर...!
मैं गुस्से की भट्टी में,
अगर जल -भुन कर
आग की लपटों में
खोता जा रहा हूं खुद को,
तो एक सार्थी के नाते तुम्हें
अपने प्रेम के गंगाजल से,
उन लपटों को बुझाना था,
जो शांत कर सकता था
अनगिनत तबाही को...,
जो मेरे अंतर्मन को,
थोड़ा-थोड़ा करके,
धुंधलाता जा रहा है...!