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Pranav Jain

Abstract Inspirational

4.5  

Pranav Jain

Abstract Inspirational

पांडिचेरी

पांडिचेरी

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मैं तेरी धूप से तपती रेत पे जूते बैग से बंधे चला हूँ,

और अथाह से भरे समंदर से मुँह धोया है

मैंने रास्तों पे चलकर एक अलग देश को जाना है ,

और सड़को पे चलते मेरे देश को पहियों पे घूमते

देखा है,

जो रेज़गारी दे देती ये ज़िन्दगी,

तो शायद बनता एक घर तेरी छाती पर,

जिसमे घुसने का रास्ता समंदर से होकर जाता,

और बाहर निकलता मौसमी हवाओं में

बहता हुआ,


या बिता देता कितनी ही शामें

समुन्द्र को घुरता हुआ किसी cafe में बैठे -बैठे,

जो मछलियाँ तैर कर आती है

उँगलियों तक वो मरी ह

ुई होती ,

ज़िंदा होते है तो वो केकड़े,

इसलिए शायद मैं तेरे भीतर की गलियों में

भटकता रहता कभी किनारे पर ना जाने के लिए,

होता जो मुझसे अगर तो ना जाने क्या- क्या करता मैं,

पर यह इतवार है जो जल्दी निकल जाता है,

वापस अपनी गलियों लौटने के लिए बुलाता है,

राहगीरों की तरह कुछ दिन का आसरा लेना चाहता हूँ बस,

तू भी मेरी ही तरह तो है,

सांवला सा रंग और रंग बिरंगे कपड़े पहने हुए,

बस इतना सा फ़र्क़ है तू समंदर से घिरा है

फिर भी ठोस खड़ा है,

और मैं हवा में तैरता किसी मछली की तरह.....



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