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मिली साहा

Abstract

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मिली साहा

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होली ( राधा कृष्ण )

होली ( राधा कृष्ण )

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रूठी जो राधा रानी रूठा वृंदावन,

कान्हा को कैसे भाए होली का रंग,

चले मनाने अपनी राधे को कान्हा,

मुख मुस्कान हाथों में ले प्रेम सुमन।

क्यों रूठी हो राधे कुछ तो बोलो,

संग सखा के होली आकर खेलो,

गोप गोपियांँ देखो सब द्वार खड़े ,

राधे इनका तुम यूँ दिल ना तोड़ो।

तुमको खूब समझती हूंँ मैं कान्हा,

तुम्हारे झांँसे में अब नहीं है आना,

खेल लो तुम सखियों के संग होली,

जाओ -जाओ होगा ना मेरा आना।


क्यों इतना हठ कर बैठी हो राधे,

तुम बिन नीरस होली ढोल ताशे,

खोल कर देखो तो एक बार द्वार,

मेरी हर धड़कन में बसी राधे राधे।

एकाकी कर मुझे बनाते हो बहाना,

आता ही नहीं है तुम्हें प्रेम जताना,

कितने पहर बीत गए तुम ना आए,

कहो यह कैसा प्रेम तुम्हारा कान्हा।

अच्छा क्षमा करो हो गई है गलती,

फोड़ भी दो अब गुस्से की मटकी,

तुम ही तो होली का हर रंग हो राधे,

राधे तुम बिन कैसी कान्हा की होली।


क्यों ऐसे शब्द कह कर रूलाते हो,

क्यों अपनी राधे को तुम सताते हो,

तुमसे रूठकर कहाँ जाऊँगी कान्हा,

तुम तो सांँसे मेरी मुझमें ही रहते हो।

तो गिले-शिकवे सब भूल जाओ राधे,

देखो सखियांँ खड़ी हैं पिचकारी साधे,

आओ होली का हम ऐसा जश्न मनाएं,

बस प्रेम ही प्रेम आए इस जग के साझे।

द्वार बाहर आई राधे ले हाथों में गुलाल,

पल भर में ही कान्हा के गाल हुए लाल,

बड़ा सताते हो कान्हा कैसी लगी होली,

तुम्हें रंगने को ही कान्हा बुना यह जाल।

मुस्काए कान्हा देख राधा की ठिठोली,

ऐसी अनोखी थी राधा कृष्ण की होली,

एक दूजे को सताने में भी प्रेम है छिपा,

जिसका रंग कभी हो न सके है फीका।



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