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Nishant Kumar Saxena

Abstract

4  

Nishant Kumar Saxena

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कुबूल कर !

कुबूल कर !

2 mins
307


(कविता में कवि द्वारा समाज के दो भाग प्रस्तुत किए गए हैं एक भाग भले मानवों का है और दूसरा भाग उस समाज का है जो सदा से भलाई, समानता, सत्य, ज्ञान और न्याय से कोसों दूर रहा है इस कविता का मुख्य उद्देश्य समाज को नैतिकता के प्रति जागरूक करना है)


ऐ ज़माने!

तुझसे मिला कड़वापन 

तुझे ही लौटा रहा हूं 

कुबूल कर। 


तू मुझसे है 

मैं तुझसे नहीं 

कुबूल कर।


तूने बेवजह सताया मुझे 

मैंने वजह का सिला दिया है 

कुबूल कर।


तेरी नजर में मैं नागफनी सही 

पर सींचा तो तूने ही है 

अब चुभने का दर्द भी 

कुबूल कर।


तूने मुझे गिराया 

मैं तुझे उठना सिखा रहा हूं 

अब ये सीख भी नापसंद है तुझे फिर भी 

कुबूल कर।


तू आज भी उन्हीं रूढ़ियों,  कपट और धोखे पर टिका है।

मैं आज भी मजलूमों के हक और न्याय की बात कर रहा हूं।

तुझे अच्छा कैसे लगूंगा।

नुकीला शीशा जो ठहरा।

सदा तेरी आंखों में चुभूंगा।


तेरी स्वार्थ भरी आंखें।

जब तक अंतर मन का सच ना देख लें।

तब तक आंखों की ये तकलीफ़ भी

कुबूल कर।


तूने ईमान बेंच दिया

मैं आज भी ईमान पर अडिग हूं।

मुझ जैसे लोग सदा तेरी तकलीफ रहे हैं,

कबीर, भगत सिंह, विवेकानन्द और अंबेडकर आदि आदि

और उन्हीं का एक शिष्य मैं भी हूं।


तुझमें सच सुनने की शक्ति नहीं 

मैंने उस सच को झेला है।

मेरी सच्ची बातें खौलते तेल की तरह

तेरे कानों को क्यों जलाती हैं?


काश ये खौलता तेल तेरे कानों से होकर

तेरे हृदय तक पहुंचा होता।

तेरा हृदय थोड़ा तो पसीजा होता 

तुझमें पश्चाताप और सुधार का भाव जगा होता।


किंतु नहीं

तू आज भी वही है जो कल था

आज भी जातिवादी और मजहबवादी ऐनक लगाए।

जब तक धूर्तता नहीं छोड़ेगा

तब तक अपने कानों की ये भयानक जलन भी

कुबूल कर!


तूने कितने दीन दुखियों को रुलाया है।

कितने दरिद्र और असहायों का उपहास उड़ाया है।

कितने बेकसूरों को षड्यंत्रों में फसाया है

कितने बेरोजगार और कमजोरों की कमजोरी का लाभ उठाया है।


तूने नशे, भ्रष्टाचार अश्लीलता और देह व्यापार के धंधे किए।

नई पीढ़ी को भी उसमें लगाया है।

जब भी किसी ने इसका विरोध किया

तो उसी को रास्ते से हटाया है।


तूने सदा झूठों और अज्ञानियों की बातें मानी 

सच्चे और ज्ञानी को सदा नीचा दिखाया है।

या तो उनसे जलन की

या फिर उन्हें क्रूर अभिमान दिखाया है।


कितने स्वर कुचले हैं

कितने बचपन छीने हैं।

कितनी जवानियां तबाह कीं 

कितने अवसर छीने हैं ।


कद्र कर भले मानवों की

वे भी तेरे हिस्से हैं।

तभी तो तुझे कद्र करना सिखा रहा हूं।

अब इस प्रशिक्षण की हर पीड़ा को भी

कुबूल कर।



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