अन्तर की पीड़ा
अन्तर की पीड़ा
जो करना चाहे क्रान्ति बड़ी, वह छोटे करतब क्या जाने!
दरबारी नीति नियंता मानस, नौकरशाही क्या जाने!
कोई क्या जाने! कोई क्या जाने!
अन्तर की पीड़ा क्या जाने!
जिसके ललाट में स्वप्न भरे हों, विकसित राष्ट्र बनाने को
जिसकी आंखें आशान्वित हों, इकलौता अवसर पाने को
जिसके भीतर हो नीति तत्व और ज्ञान राष्ट्र चमकाने को
जिसके प्रतिपल के सभी कर्म हों, एक लक्ष्य ही पाने को
उस अवसर से वंचित मन की, चिंतित पीड़ा कोई क्या जाने!
जिसने देखा एक कालखण्ड, दर्दों, कष्टों को झेला हो
जिसके अनुभव में दुखियों, हीनों के आंसू का रेला हो
जिसके हो इर्द-गिर्द दुनिया, पर पल-पल स्वयं अकेला हो
जिसने हर बाजी और खेल बस राष्ट्रहितों में खेला हो
उस योग्य, कुशल, कर्मठ, जनकी किंचित पीड़ा कोई क्या जाने!
जो व्यक्ति सदा कपटी, छलियों और कुटिल जनों में पलता है
जो बना हुआ किस कारण को और कार्य दूसरे करता है
जिसके सपने मानवता हैं और मानव हित पर मरता है
जिसके हाथों में कलम थमी पर राजनीति न करता है
उस भले शक्तिहीन नर की संचित पीड़ा कोई क्या जाने?
