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Dr Mohsin Khan

Abstract

5.0  

Dr Mohsin Khan

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हिंदी

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कबीर की है ये डफली, मीरा का मधु-प्याला।

हिंदी की ख़ुशबुओं में, ख़ुसरो, नबी, निराला।


चन्द की है ये कविता, जायसी की मसनवी भी,

ये सूर की मुरली है और तुलसी की है माला।


रसखान की है भक्ति, रहीम की नीति सी है,

हैं दोहे बिहारी के, बच्चन की मधुशाला।


महावीर ने सँवारा इसे, अपनी कोशिशों से,

बाबू भारतेंदु ने, नयी चाल में इसे ढाला।


प्रसाद मिला जो इसको, तो आ गई जावानी,

करुणा की महादेवी ने, हँस-हँस के इसे पाला।


मुंशी की है तहरीरें और क़िस्से हज़ारी के,

इसको तो भारती ने, नये रंग में रच डाला।


दिनकर की ये है माँ और चाह भगवती की,

सखि है पंत की और माखन की सुरबाला।


है पूजा मैथिली ने और सुमन से सजाया, 

है हिन्दी के भवन में, दुर्गा तेरा उजाला।


कई रूप में मिलेगी, हर प्रांत की मिट्टी में,

कश्मीर से कुमारी, बंगाल से अंबाला।


इसमें ढले हुए हैं, कई हर्फ़ तेहज़ीबों के,

पीनी पड़ी इसको, क्यों बार-बार हाला।


अपने वतन में ही क्यों, ये हो रही पराई,

जबके सभी ने इससे, काम अपना निकाला। 


है जिनके हाथों में, इसकी ज़िम्मेवारी,

उन्हीं लोगों ने इसको, हर बार है टाला।


ले चलोगे साथ इसको, चलती रहेगी जग में,

थम न सकेगी थक के, पड़े पैर में ही छाला।


 बदलती रही इसकी, हर बार नयी काया,

बिगड़ी अगर कभी तो, सबने इसे संभाला।


 है नाज़ मुझको अपनी, हिंदी ज़ुबाँ पे यारों,

हिंदी हैं हम वतन है ये देश सबसे आला।



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