कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा
कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा
कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा
म॑ज़िलें दूर हैं तो क्या हुआ
रास्ते बामुश्किल हैं तो क्या हुआ
हवाओं के रुख न बदले तो क्या हुआ
उगता सूरज अन्धेरों को चीरता दिखेगा
कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा
मत कोस उस दर्द की अन्धेर- भरी रात को
जिस्म औ दिल पर पड़े उस आघात को
अक्स उनके ज़ेहन से तू मिटाने की बात कर
न झंझोड़ दिलो -दिमाग को बस उम्मीद की बात कर
इस जहां के शोर में भी भाव तेरा निखरेगा
कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा ।
प्रतिशोध से न बन पाया न कभी कोई महान
फ़िदा उसी पर हुई ज़िन्दगी खुदा रहा उसपर मेहरबाँ
फ़ना होकर न किया कभी मानवता का प्रतिकार
न छेड़े कभी किसी की संवेदनाओं के तार
सोच मत इस भँवर से तू अवश्य निकलेगा
कोई तो रास्ता ज़रूर निकलेगा।