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Shyama Sharma Nag

Abstract

4.3  

Shyama Sharma Nag

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कभी यहाँ कभी वहाँ

कभी यहाँ कभी वहाँ

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कभी यहाँ कभी वहाँ 


मेरे हिस्से का प्यार बँटता रहा 

कभी यहाँ कभी वहाँ

ज़िंदगी भटकती रही मेरी, 

पेंडुलम की तरह

कभी यहाँ कभी वहाँ


चंद अल्फ़ाज़ों के इंतज़ार में 

भावों के इज़हार में

दिले दीदार में

समंदर भावों का मचलता रहा

कभी यहाँ कभी वहाँ


सकूने मोहब्बत की ज़िंदगी 

पल दो पल की

ज़हन तमाशाई बन के देखता रहा 

हालात तो इतने मजबूर न थे 

तस्व्वुर भी आँखों में पलता रहा

न चाहते हुए -

सैलाब अश्कों का फिर भी दहकता रहा

कभी यहाँ कभी वहाँ


क्यों सिले बैठे थे होंठों को 

जज़्बातों का लावा दबाए हुए 

आँखों की ज़ुबाँ न पढ़ पाया कोई

जुनून हदे इंतहा तक बरसता रहा

कभी यहाँ कभी वहाँ।


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