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kunwar singh

Abstract

4.5  

kunwar singh

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"मैं" तुम और मैं

"मैं" तुम और मैं

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तुम मेरी अनकही बातें भी समझ जाती हो,

कुछ मुझे और कुछ तुम्हें रोक लेती है।

जुबाँ से वो बातें नही निकल पाती है

पर हम दोनों को समझ में आती तो है।


तुम कब इतनी क़रीब हो आये

कि अब तेरे जाने की बात दर्द देता है।

हर बार सोचता हूँ बता दूँ तुम्हें

पर अब मुझे खुशियों से डर लगता है।


हाँ! तुम्हें मालूम है और ये बात भी सच है 

कि मैं बता नही पाऊँगा और तुम जानती हो।

हाँ! मैं बंजारा तो नही पर कोई ठिकाना भी नही

और हाँ! सच से डरता हूँ सुनकर सच दूरी का।


हाँ ! तेरे आसमां में उड़ने को पंख नहीं है मेरे पास 

और चाँद-तारे तोड़ने के सपने नहीं आते मुझे।

ना ही मैं टूटते तारों से तुम्हारा साथ माँगता हूँ

उस तूफ़ान को भी पता है मेरे पैर जमीं पर नहीं है।


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