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Bindiyarani Thakur

Abstract

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Bindiyarani Thakur

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समय की रेत फिसलती हुई

समय की रेत फिसलती हुई

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समय की रेत फिसलती जा रही है

हमको बहुत कुछ सिखलाती जा रही है


बाँध नहीं सकता कोई भी इसको

अदृश्य सा है किन्तु यथार्थ है


कैसे बचे कोई, बचना मुश्किल है

सब जगह भरा स्वार्थ है


समय का फेर तो बड़ा ही पीड़ादायी है

जाने किस किस ने इससे मात पायी है


एक एक पल बहुमूल्य है

जो समय का मोल जान गया है


वो टकरा गया है तूफानों से

सब बाजी मार गया है।


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