कहने दो
कहने दो


बहुत हुआ रोक- टोक
अब मुझको चुप न रहने दो
इतनी सदियों से सहती रही थी
अब मुझको भी कुछ कहने दो।
कभी जाति तो कभी धर्म के
नाम पर मुझपर लगाई बंदिशें
तुम्हारा काम हरवक्त चलता ही रहा
मेरे हिस्से आई केवल नफरतें।
सबकुछ तुम्हारे लिए किया
लेकिन कभी तुमने कद्र न की
हाय रे ज़ालिम पर्दा! मैं तो
तेरे ओट में जलती ही रही।
सारे कष्ट मैं सहूँ
पर बच्चे तुम्हारे कहलाते हैं
कुछ अच्छा करें तो बाप पर गए हैं
गलती करने से माँ से सीख कर आते हैं।
हक बराबरी का नहीं देना है
तो चाहे मत देना
बस रहने के लिए थोड़ी सी जगह और
दिल से इज्जत और सम्मान देना।