Ajay Singla

Classics

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श्रीमद्भागवत-२६७; भगवान श्री कृष्ण की नित्यचर्या और उनके पास जरासन्ध के क़ैदी राजाओं के दूत का आना

श्रीमद्भागवत-२६७; भगवान श्री कृष्ण की नित्यचर्या और उनके पास जरासन्ध के क़ैदी राजाओं के दूत का आना

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

जब सवेरा होने लगता तब

कृष्ण पत्नियाँ उनके बिछोह की

आशंका में व्याकुल हो जातीं सब ।


ब्रह्ममुहूर्त में ही उठ जाते कृष्ण

उसके बाद स्नान आदि करके

वस्त्र पहन वन्दना कर वो

गायत्री का जाप हैं करते ।


सूर्योदय होने पर फिर

देवता, पितरों का तर्पण करते

दिव्य वस्त्र पहनते पीताम्बर

आभूषित होते कोसतुभमणि से ।


अन्तपुर में रहने वालों की

अभिलाषा पूर्ण करते हैं वो

रथ लेकर आ जाते दारूक

सारथी कृष्ण के लगाकर घोड़ों को ।


प्रणाम करके भगवान कृष्ण को

खड़े हो जाते उनके सामने

रथ पर सवार हों तब श्री कृष्ण

सात्यकी और उद्धव जी के साथ में ।


बड़े कष्ट से विदा करतीं रानियाँ

मुस्कुराते हुए कृष्ण जी निकलें

महल से निकलकर श्री कृष्ण

प्रवेश करते सुधर्मा सभा में ।


भूख - प्यास, शोक - मोह, ज़रा - मृत्यु

नही सतातीं छ उर्मियाँ ये

जब कोई बैठ जाता है

भगवान की इस दिव्य सभा में ।


इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण

अलग अलग विदा होकर रानियों से

एक रूप में सुधर्मा सभा में

आकर सिंहासन पर विराजते ।


विदूषक हास्य विनोद से और

नर्तकियाँ नृत्य से सेवा करतीं

वंदीजन गाएँ और स्तुति करें

मंत्रों का व्याख्यान करे ब्राह्मण कोई ।


एक दिन की बात है, द्वारका में

कोई आया राज्यसभा के द्वार पर

सभा में द्वारपाल ले आए उसे

उपस्थित किया कृष्ण के सामने वहाँपर ।


कृष्ण को बताया उसने

दूत हूँ मैं उन राजाओं का

बलपूर्वक जरासंध ने

जिनको है बंदी बनाया ।


इस प्रकार निवेदन किया उसने

‘ आपकी शरण में आता जो

सारे ताप नष्ट कर देते

हर लेते उसके कष्ट को ।


जरासंध रूपी संसार के चक्र से

भयभीत हो आए आपकी शरण में

वो हमें है कष्ट दे रहा

मुक्त कीजिए हमें इस क्लेश से ।


भगवान आपके चरणकमल जो

शोक और मोह को नष्ट करें

आप ही अब हमें छुड़ायिए

जरासंध रूपी कर्मबन्धन से ।


श्री कृष्ण ! अठारह बार आपने

जरासंध से युद्ध किया था

मान मर्दन करके उसका

सत्रह बार उसे छोड़ दिया था ।


परन्तु एक बार उसने जीता आपको

लीला की आपने मनुष्य की सी

आपकी शक्ति, बल अनंत है

अभिनय किया हारने का फिर भी ।


उसी से उसका घमंड बढ़ गया

हम लोगों को वो है सताता

यह जानकर कि हम भक्त आपके

कष्ट और भी देता जाता ।


अब आपकी जैसी इच्छा हो

वैसे ही कृपा कीजिए ‘

ये कह दूत चला गया जब

उसी समय नारद वहाँ पहुँचे ।


भगवान उन्हें देख खड़े हो गए

प्रणाम किया, पूजा की उनकी

कहें ‘ देवर्षि , आप ना जानें जिसे

तीनों लोकों में ऐसी कोई बात नही ।


हम आपसे ये जानना चाहते

युधिष्ठिर आदि पांडव हैं कैसे

और इस समय वो सारे

क्या काम हैं करना चाहते ‘।


नारद कहें ‘ प्रभो, व्याप्त हैं

घर घर में ही आप तो

फिर अनजान बनकर पांडवों का

समाचार मुझसे क्यों पूछते हो ।


फिर भी आप जो पूछ रहे तो

बतलाता हूँ मैं आपको ये

कि युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ से

आराधना आपकी करना चाहते ।


उनकी इस अभिलाषा का

कृपाकर अनुमोदन कीजिए

निर्मल कीर्ति ये आपकी

छा रही सब दिशाओं में ।


चरणामृतधारा आपकी

स्वर्ग में मंदाकिनी के रूप में

पाताल में भोगवती और

मृत्यु लोक में गंगा के नाम से ।


प्रवाहित होकर वो सारे

विश्व को पवित्र कर रहीं

उस राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर

पूजा करना चाहता आपकी ‘ ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

यदुवंशी जो थे उस सभा में

पहले जरासंध के ऊपर

चढ़ाई करना चाहते सभी वे ।


चाहते थे कि पहले जीतें उसको

इसलिए नारद जी की बात ये

ज़्यादा पसंद ना आयी उनको

तब कृष्ण उद्धव जी से बोले ये ।


‘ उद्धव, मेरे हितेषी, सुहृद तुम

शुभ सम्मति देने वाले हो

तत्व को भलीभाँति समझते इसलिए 

अपना उत्तम नेत्र हम मानते तुमको ।


तुम ही हमें बतलाओ अब

इस विषय में क्या करना चाहिए ‘

उद्धव कहें, ‘ सर्वज्ञ आप प्रभु

परंतु आज्ञा मानकर वो बोले ।


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