संजोग...
संजोग...
कहने को तो अक्सर कोई कुछ बोल देता,
कभी कभी कही हुई बाते सच होजाता।
कोई इसे देख तब बोलदिया भी करते,
ये कुछ और नहीं एक संजोग बोलते।
मानो तो इस बातमे कुछ है दम,
नहीं तो ये सिर्फ है मनकी भ्रम।
पर कभी अगर हम थोड़ा सोचा करें,
जरा खोलदे,हम ये मनकी दरवाजे सारे।
कभी कुछ कही हुई बाते सच होजाते,
सचमे तो फिर वो एक संजोग होते।
ये संजोग एक समय का खेल होता,
कियूँ की होनी को कौन टाल सकता?
किसीसे मिलना, बात करना एक संजोग होता,
किसीसे सुनना, सुनके करना भी संजोग कहेलाता।
अपनी सोच को कर्म मे दिखाना संजोग,
खुदसे बात करके वही करना भी संजोग।
कुछ कुछ बाते अचानक होजाना भी संजोग,
कुछ कर्म का असफलता भी एक संजोग।
इस संसार मे हमारा आना एक संजोग,
सांसारिक बनके अपनी धर्म निभाना भी संजोग।
कभी कभी बिन सुने मनको पढ़लेना संजोग,
खुली आँख से अंधे बनाना भी संजोग।
अपनी सोच को शब्दों में सजाना एक संजोग,
उसे कविता बनाके सबमें बाँटना भी संजोग।