तुम
तुम
तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं.. कि..
तुम्हारी अहमियत मेरे लिए क्या है…
तुम्हें इतना भी अंदाज़ा नहीं.. कि…
तुमसे जुड़ी हर चीज़ से मुझे फर्क पड़ता है…
भले ही मैं अपने जज्बातों को…
शब्दों में ढालकर.. लबों पर न ला सकूं…
फिर चाहे वह तुम्हारी ख़ुशियां हों या ग़म…
दोनों को.. मैं तुमसे भी ज़्यादा गहराई से जीती हूं…
तुम्हें तो यह भी खबर नहीं..कि..
तुम्हारा मेरी तारीफ़ करना.. तुम्हारे लिए…
इक आम सी बात होगी… पर..
उस पल, मेरी अहमियत.. मेरी ही नज़रों में बढ़ जाती है…
तुम तो इतने नासमझ..कि...
मेरी की गई तारीफ़ भी न समझ सके…
तुम्हारे लिए वो महज़ अल्फ़ाज़ ही तो थे…
तुम्हें ज़रा अंदाज़ा नहीं…कि… वो मेरे असल जज़्बात थे…
वही जज़्बात… जो खुलकर…मैं शायद कभी बयां न कर सकूं…
तुम्हें तो इतना भी अंदाज़ा नहीं… कि…
तुम्हारी नज़रअंदाजी मुझे कितनी चुभती है…
मेरा.. कुछ बातों को टाल देना… और तुम्हारा…
उसे सच मान लेना…सच कहूं…
बयां यह भी नहीं कर सकती… पर..
यह बात सीधे दिल में चुभती है….
पर… तुम्हें इसका भी अंदाज़ा नहीं….