आंखें
आंखें

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कहते हैं ना कि आंखें सब बयां करती हैं…
चाहे अंदर का सच हो या बाहर का झूठ…
फिर चाहत की चादर ओढ़े द्वेष हो… या..
नाराज़गी में छिपा मासूम सा प्यार…
आंखें हर बंधन से परे होतीं हैं…
मौन के भीतर बसे शोर को भी…
आंखें अपनी भाषा में व्यक्त करती हैं…
सच है कि आंखें धोखा नहीं देती…
पर, शायद औरों के लिए ही.. क्योंकि..
जिन एहसासों को हम ताउम्र क़ैद रखना चाहते हैं…
आंखें उन्हें भी अपने अंदाज में आज़ाद करती हैं।
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