रचना...
रचना...


अपने व्यक्तिगत क्षणों में…
कोई व्यक्ति जैसे ही क़लम पकड़ता है …
तो अनायास ही उसके हृदय में उमड़ते भाव …
अल्फ़ाज़ बन पन्ने पर बिखर जाते हैं…
और सृजन करते हैं उस रचना का…
जो उनकी भाषा में तो काल्पनिक होती हैं…
किन्तु सिर्फ उन्हें ही आभास होता है..
उस कल्पना में छिपे अंतर्द्वंद्व का…
जिसमें ख़ामोशी का उग्र शोर…
विडंबनाओं की अनवरत दास्तां…
और ईष्या व करुणा का विचित्र सामंजस्य है…
इन्हीं रहस्यों को अपने भीतर समेटे…
व्यक्ति सदैव एहसानमंद रहता है उन अमूल्य क्षणों का…
जिसमें उसने अपने उद्गारों को …
अलंकृत शब्दों में पिरोकर “रचना” का नाम दिया…।